*🌼स्वामी चिदानन्द सरस्वती की प्रेरणा, मार्गदर्शन व संरक्षण में मानस कथाकार संत श्री मुरलीधर जी महाराज के मुखारविंद से श्रीराम कथा की ज्ञान गंगा परमार्थ गंगा तट पर हो रही प्रवाहित*
ऋषिकेश । परमार्थ निकेतन में आयोजित 34 दिवसीय श्रीराम कथा के 10 वें दिन राजस्थान सहित भारत के विभिन्न राज्यों से आये श्रद्धालुओं को परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी का पावन सान्निध्य व उद्बोधन प्राप्त हुआ। आज की मानस कथा में कथाकार संत मुरलीधर जी ने तीर्थों के महत्व की अद्भुत व्याख्या की।
आज नारद जयंती के पावन अवसर पर स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने नारद जी की भक्ति, प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम व उनकी श्रद्धा को नमन करते हुये कहा कि नारद जी एक अद्भुत संदेशवाहक हैं। वे न केवल देवताओं के बल्कि सनातन संस्कृति के संदेशवाहक व पैरोकार भी हैं। देवताओं को सूचना देने वाले भी वही हैं और सूचना रचने वाले भी वही हैं। उन्होंने जो भी किया वह सब उद्धार व कल्याण के लिये किया।
नारद जी ने न कभी प्रहार किया और न कभी वार किया बस नारायण-नारायण जपते हुये तीनों लोकों का केवल मंगल ही किया। नारद जी की दृष्टि सभी ओर रहती थी। कहां पर क्या करना है, क्या बिगड़ रहा है और उसे कैसे व किसके द्वारा ठीक करवाना है यह सब नारद जी ने बड़ी ही सुन्दरता से किया और जो भी किया वह केवल निर्माण के लिये किया, संवर्द्धन के लिये किया, संरक्षण के लिये किया और सभी के आनंद के लिये किया। अद्भुत भक्ति थी नारद जी की उन्होंने अपने जीवन का एक क्षण भी अपने लिये नही जिया सब कुछ आपने आराध्य और इस ब्रह्मण्ड को समर्पित कर दिया ऐसी दिव्य विभूति को नमन! उनकी साधना, भक्ति और प्रभु प्रेम को वंदन।
स्वामी जी ने कहा कि कथा हमें भीड़ नहीं भाव का दर्शन कराती है। तीर्थ में कथा होती हैं तो कथा में सारे धाम पधारते हैं। स्वधाम अर्थात् स्वयं के भीतर प्रस्थान करने का अवसर हमें कथा के माध्यम से ही मिलता है। स्वयं को प्रभु को समर्पित करना ही सबसे बड़ी भक्ति है यही शिक्षा हमें नारद जी के चरित्र से मिलती है।
कथा व्यास संत मुरलीधर जी ने आज की मानस कथा में तीर्थ क्षेत्रों के दिव्य महत्व का अद्भुत वर्णन करते हुये कहा कि तीर्थ क्षेत्र में जाने से काया सुधर जाती हैं। तीर्थों में निवास करने वाले संतों के दर्शन करने से ही जीवन सफल हो जाता है। उन्होंने कहा कि तीर्थ से वापस आने पर भी मन में द्वेष हो तो तीर्थ आने का कोई मतलब नहीं है। तीर्थ में जाने का तात्पर्य ही है मन का निर्मल होना। भगवान की कथा मन को निर्मल करती है इसलिये कहा गया है कि ’गये बद्री-काया सुधरी।’
देवर्षि नारद जी तीनों लोकों में निरंतर विचरण कर सब जगह की सारी खबर रखते थे। वे देव, दानव और मानव सबके मध्य सूचनाओं का आदान-प्रदान बिना किसी स्वार्थ के लोकहित को ध्यान में रखकर किया करते थे। भारत की सनातन संस्कृति लोकमंगल की संस्कृति है क्योंकि ऐसी दिव्य संस्कृति के ध्वजावाहक देवर्षि नारद जी जैसी दिव्य विभूतियां हैं। नारद जी की जयंती के पावन अवसर पर स्वामी जी ने संत श्री मुरलीधर जी को रूद्राक्ष का दिव्य पौधा भेंट किया।
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