विसर्जन से सृजन की यात्रा
💥श्री गणेश विसर्जन शाश्वत मूल्यों और सृजन की यात्रा का पर्व
🌸अनंत चतुर्दशी और श्री गणेश विसर्जन की हार्दिक शुभकामनाएँ
ऋषिकेश, 6 सितम्बर। अनंत चतुर्दशी, अनंत चैदस अत्यंत पवित्र पर्व जो भगवान श्री विष्णु को समर्पित है। अनंत अर्थात् कभी समाप्त न हो, जो शाश्वत है। आज का दिन जीवन में शाश्वत मूल्यों की ओर प्रेरित करने वाला दिन है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि जीवन में भौतिक सुख और दुःख क्षणिक हैं, परंतु जो शाश्वत है, वह है धर्म, भक्ति और आत्मा की पवित्रता। अनंत चतुर्दशी, जीवन में सातत्य और अनुशासन का प्रतीक है, जो हमें हर परिस्थिति में संयम और नैतिक मूल्यों का पालन करने की प्रेरणा देता है।
स्वामी जी ने कहा कि विसर्जन का अर्थ केवल मूर्ति का नदी या समुद्र में डालना नहीं है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में हर अंत एक नए आरंभ का अवसर लेकर आता है। जब श्री गणेश जी की मूर्ति को विसर्जित किया जाता है, तो वह प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है कि भौतिक चीजें क्षणिक हैं, परंतु हमारी आस्था, भक्ति और सृजनशीलता शाश्वत हैं। जीवन में जितनी भी परेशानियाँ, विघ्न और बाधाएँ आती हैं, उनका समाधान भी इसी सृजन और नवीनता की यात्रा से संभव होता है।
श्री गणेश का विसर्जन हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में बदलाव और नश्वरता को स्वीकार करना आवश्यक है। जिस प्रकार मूर्ति को पानी में विसर्जित किया जाता है, उसी प्रकार हमारे जीवन में पुराने अनुभव, विगत दुख और असफलताओं को छोड़कर नई शुरुआत करनी चाहिए। यह हमें मानसिक शांति, आत्मविश्वास और नई ऊर्जा प्रदान करती है।
श्री गणेश विसर्जन सामुदायिक सहयोग और सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। यह पर्व विभिन्न समुदायों, धर्मों और उम्र के लोगों को एक साथ लाता है। यह आपसी भाईचारे और सद्भावना का अनुभव कराता हैं।
स्वामी जी ने कहा कि सृजन से तात्पर्य केवल निर्माण करना नहीं है, बल्कि इसे प्रकृति के साथ सामंजस्य भी है। जब हम कोई वस्तु, कोई कला, कोई उत्सव या कोई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे कर्म प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र को हानि न पहुँचाएँ। पारंपरिक तौर पर मूर्तियों को प्राकृतिक और पर्यावरण-सुरक्षित सामग्रियों से बनाना, जैसे मिट्टी और प्राकृतिक रंगों का उपयोग, यह दर्शाता है कि सृजन और प्रकृति का संरक्षण एक साथ संभव है। प्रकृति के साथ सृजन और संरक्षण हमें स्थायित्व, संतुलन और नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर करता है। जब हम नश्वरता को स्वीकार करते हैं और प्रकृति की सीमाओं का सम्मान करते हैं, तो हम जीवन के असली अर्थ को समझते हैं। यह केवल पर्यावरण की रक्षा नहीं है, बल्कि हमारे आस्था, संस्कार और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा भी है।
वर्तमान समय में, पर्यावरण संकट, जल और वायु प्रदूषण, वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की हानि ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि हम प्रकृति के साथ सृजन और संरक्षण के मूल सिद्धांतों को नहीं अपनाएंगे तो जीवन संकट में पड़ जाएगा इसलिए धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत स्तर पर सभी को यह समझना होगा कि प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना, उसकी रक्षा करना और हर सृजनात्मक प्रयास में उसके संतुलन का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।
प्रकृति के साथ सृजन और संरक्षण केवल एक दार्शनिक विचार नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन का आधार है।
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