डरबन। सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करने विश्व भ्रमण पर निकले श्री तपोनिधि पंचायती अखाड़ा निरंजनी, मायापुर के अंतर्राष्ट्रीय संत स्वामी रामभजन वन भक्तों का कार्तिक मास का महत्व बताते हुए कहते हैं सनातन धर्म में ईश्वर की सत्ता सर्वोपरि है। मान्यता है कि ईश्वर की आज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है। ईश्वर की भक्ति हमें पाप कर्म करने से रोकती है। वहीं संसारिक मोह-माया में फंसकर हम गलत कार्यों में लिप्त रहकर पतन का मार्ग तय करते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म के अनुसार, प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का एक अंश विद्यमान है। यह केवल मनुष्यों पर ही नहीं, बल्कि सभी सजीव और निर्जीव वस्तुओं पर भी लागू होता है। इस दृष्टिकोण से, ईश्वर के साथ मनुष्य का संबंध उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि किसी अन्य प्राणी का। आध्यात्मिक संस्थाओं में, ईश्वर को आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत के रूप में देखा जाता है, जो हमें जीवन के गहन सत्यों को समझने में मदद करता है। यह ज्ञान हमें जीवन में दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है। कई मान्यताओं के अनुसार, ईश्वर मानवता से बिना शर्त प्रेम करते हैं, भले ही मनुष्य पापी या अपूर्ण हों। ईश्वर जीवन का पोषण और मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन वे मनुष्यों से अच्छे कर्म और उपासना की भी अपेक्षा करते हैं। मानवीय कर्मों के आधार पर न्याय का एक पहलू भी है। अंततः, मानवता और ईश्वर के बीच का संबंध एक आध्यात्मिक खोज है, जो प्रत्येक व्यक्ति के अपने विश्वासों और अनुभवों पर निर्भर करता है। यह संबंध प्रेम, भक्ति, ज्ञान या समर्पण के विभिन्न रूपों में व्यक्त किया जा सकता है।स्वामी रामभजन वन कहते हैं कि मनुष्य और ईश्वर का संबंध एक जटिल और गहन विषय है, जिसकी विभिन्न धर्मों और दार्शनिक परंपराओं में अलग-अलग व्याख्या की गई है। यह संबंध भक्ति, प्रेम, समर्पण और कभी-कभी भय पर आधारित होता है। सनातन धर्म में, ईश्वर को सृष्टिकर्ता और मनुष्य को उनकी रचना माना गया है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, मानव अस्तित्व ईश्वर की इच्छा का परिणाम है और मनुष्यों को अपने रचयिता के प्रति सम्मान, आज्ञाकारिता और प्रेम का भाव रखना चाहिए। कुछ दार्शनिक दृष्टिकोणों में, मनुष्य को एक बीज और ईश्वर को उस बीज से उत्पन्न होने वाले फूल के रूप में देखा जाता है। इस दृष्टिकोण से, दोनों अलग-अलग सत्ताएँ नहीं, बल्कि एक ही विकास प्रक्रिया के चरण हैं।
भक्त और ईश्वर के बीच एक व्यक्तिगत संबंध भी होता है, जो भक्त और ईश्वर के बीच के सामान्य संबंध से भिन्न होता है। यह एक ऐसा संबंध है जिसमें भक्त अपने ईश्वर को एक मित्र या साथी के रूप में देखता है जिसके साथ वह सब कुछ साझा कर सकता है।
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