चुपचाप जीवन जीने को मजबूर

(व्यंग)

कुछ के लिए ‘पहले’ का अर्थ कुछ दिन तो कुछ के लिए और चार दिन हैं।  चुपचाप जीवन जीने को मजबूर। चेहरे पर बनावटी मुस्कान चिपकाये रखनी पड़ती है। भीतर ही भीतर मृत्यु भय का ताना-बाना बुनता रहता है। फेशियल, डाई से जगमगाने वाले चेहरे अपनी वास्तविकताएँ ढूँढ़ने मजबूर हैं। बच्चों का उछल-कूद अब बोझिल-सा लगने है। पहले उनके नन्हें हाथों को देखकर जो गुमान होता था अब उन्हीं नन्हें हाथों को फेसबुक पर समय गुजारते देखना अच्छा नहीं लगता है। धीरे-धीरे पुराने दिनों की ओर लौटने की इच्छा प्रबल होने लगती है।  मसालों की बनी सब्जी स्वाद में फीकी लगने लगती है। फोन की गैलरी देख-देखकर आँखें पक जाती हैं।

अब वाट्सएप के चैट उबाऊ लगने लगते हैं। घर मैं बैठे-बैठे ऐसा लगता है कि कोई हमें काटने दौड़ रहा है। जूम, गूगल मीट, माइक्रोसॉफ्ट रूम आगे चलकर बहुत खराब लगने लगते हैं। अब इनका नाम सुनते ही खीझ, क्रोध और तनाव पैदा होने लगता है। कब तक एक-दूसरों से दूर रहें? कब तक एक-दूसरे की बनावटी हँसी का सामना करते रहें? कब तक इस तरह घुट-घुटकर जीते रहें? कब तक काम-काज से दूर रहें? कब तक अपने आपको झूठा दिलासा देते रहें? कब तक? कब तक?

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